भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य: प्रमुख कार्यक्रम और अवधारणाएँ
प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के 8 आवश्यक घटक
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा 1978 में आल्मा-अता सम्मेलन में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की अवधारणा प्रस्तुत की गई थी। इसके तहत कुछ मुख्य घटकों को आवश्यक माना गया है, जो नीचे दिए गए हैं:
- स्वास्थ्य शिक्षा (Health Education): लोगों को स्वास्थ्य, पोषण, सफाई, और रोगों की रोकथाम की जानकारी देना। समुदाय में जागरूकता बढ़ाना।
- पोषण का समुचित आहार (Proper Nutrition): संतुलित आहार की उपलब्धता सुनिश्चित करना। कुपोषण से बचाव और उसके इलाज की व्यवस्था।
- स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति (Safe Drinking Water): लोगों को स्वच्छ और सुरक्षित पानी उपलब्ध कराना। जल जनित रोगों से सुरक्षा।
- मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य देखभाल (Maternal and Child Health Care): गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की देखभाल। टीकाकरण और प्रसव पूर्व/प्रसवोत्तर सेवाएं।
- टीकाकरण कार्यक्रम (Immunization): बच्चों को टीके देना (जैसे – BCG, DPT, पोलियो, खसरा आदि)। रोगों से प्रतिरक्षण बढ़ाना।
- सामान्य रोगों और चोटों का उपचार (Treatment of Common Diseases & Injuries): बुखार, दस्त, चोट, खांसी जैसे साधारण रोगों का प्राथमिक इलाज।
- रोगों की रोकथाम और नियंत्रण (Prevention and Control of Endemic Diseases): मलेरिया, डेंगू, तपेदिक आदि स्थानीय रोगों का नियंत्रण। नियमित निगरानी और जांच।
- आवश्यक दवाओं की उपलब्धता (Availability of Essential Drugs): प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर जरूरी दवाइयों की उपलब्धता। दवाएं सस्ती और प्रभावी होनी चाहिए।
चाइल्ड सरवाइवल एंड सेफ मदरहुड (CSSM) कार्यक्रम
CSSM का पूरा नाम “चाइल्ड सरवाइवल एंड सेफ मदरहुड” (Child Survival and Safe Motherhood) है। यह कार्यक्रम भारत सरकार द्वारा 1992 में शुरू किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य शिशु मृत्यु दर (IMR) और मातृ मृत्यु दर (MMR) को कम करना है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत माताओं और बच्चों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जाती हैं। इसमें गर्भवती महिलाओं की देखभाल, सुरक्षित प्रसव, नवजात शिशु की देखभाल, स्तनपान को प्रोत्साहन, बच्चों का नियमित टीकाकरण, पोषण की जानकारी और आम बीमारियों का उपचार शामिल है। CSSM कार्यक्रम के तहत ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित की जाती है।
इस कार्यक्रम के तहत गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं को समुचित देखभाल, उपचार और पोषण सहायता प्रदान की जाती है। इसमें सुरक्षित प्रसव, संस्थागत डिलीवरी को बढ़ावा, उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था की पहचान, आयरन-फोलिक एसिड की आपूर्ति, टीकाकरण, डायरिया एवं सांस की बीमारियों से बचाव, नवजात की देखभाल और स्तनपान को बढ़ावा देना शामिल है। CSSM कार्यक्रम के अंतर्गत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, उपस्वास्थ्य केंद्रों और आंगनबाड़ी केंद्रों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं पहुँचाई जाती हैं। इस कार्यक्रम में आशा कार्यकर्ता, एएनएम (ANM), आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और अन्य स्वास्थ्य सेवाकर्मी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 1997 में CSSM कार्यक्रम को और व्यापक रूप में लागू करते हुए इसे RCH (Reproductive and Child Health) कार्यक्रम में सम्मिलित कर दिया गया जिससे जनन स्वास्थ्य, परिवार नियोजन और किशोर स्वास्थ्य को भी इसमें शामिल किया जा सके।
मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट 1971
MTP का पूरा नाम “मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971” (Medical Termination of Pregnancy Act 1971) है जिसे भारत सरकार द्वारा 1971 में पारित किया गया था और 1972 में लागू किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं को असुरक्षित गर्भपात से बचाना और उन्हें सुरक्षित, वैध तथा कानूनी गर्भपात की सुविधा प्रदान करना है। इस कानून के अंतर्गत महिलाएं कुछ विशेष परिस्थितियों में गर्भ को चिकित्सकीय रूप से समाप्त (गर्भपात) करवा सकती हैं।
MTP अधिनियम के अंतर्गत गर्भपात की अनुमति केवल पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर द्वारा ही दी जा सकती है और यह केवल सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त अस्पताल या अधिकृत क्लिनिक में ही किया जा सकता है। प्रारंभ में यह अधिनियम 20 सप्ताह तक के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देता था लेकिन 2021 में संशोधन के बाद इसे 24 सप्ताह तक बढ़ा दिया गया है (कुछ विशेष श्रेणियों जैसे बलात्कार पीड़िता, नाबालिग आदि के लिए)।
MTP एक्ट के अंतर्गत गर्भपात निम्नलिखित परिस्थितियों में किया जा सकता है:
- जब गर्भवती महिला के जीवन पर खतरा हो।
- जब शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचने की संभावना हो।
- जब गर्भ बलात्कार के कारण ठहरा हो।
- जब गर्भधारण के समय गर्भनिरोधक उपाय विफल हो गया हो (विशेषकर विवाहित स्त्रियों के लिए)।
- जब भ्रूण में गंभीर विकृति हो।
यह अधिनियम महिलाओं के अधिकार, स्वास्थ्य और गरिमा की रक्षा करता है और सुरक्षित प्रजनन विकल्प सुनिश्चित करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत गोपनीयता बनाए रखना आवश्यक है, और किसी भी महिला की जानकारी को बिना उसकी अनुमति के सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। MTP अधिनियम को लागू करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय और संबंधित राज्य सरकारें अस्पतालों और डॉक्टरों को समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी करती हैं ताकि सुरक्षित एवं नैतिक गर्भपात सुनिश्चित हो सके।
राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम और पोषण अभियान
राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम भारत सरकार द्वारा कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिए चलाया गया एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम है। इसका उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों जैसे गर्भवती महिलाएं, स्तनपान कराने वाली माताएं, शिशु, बच्चे, किशोर-किशोरी और वृद्ध जनसंख्या को उचित पोषण और स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना है। यह कार्यक्रम 1975 में “एकीकृत बाल विकास सेवा” (ICDS – Integrated Child Development Services) के रूप में शुरू हुआ था जो आज भी भारत का सबसे बड़ा पोषण कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम के तहत आंगनबाड़ी केंद्रों के माध्यम से बच्चों को पूरक पोषण, स्वास्थ्य जांच, टीकाकरण, गैर-औपचारिक शिक्षा तथा माताओं को स्वास्थ्य और पोषण संबंधी शिक्षा दी जाती है।
राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम के अंतर्गत कई अन्य उप-कार्यक्रम भी शामिल हैं जैसे मिड-डे मील योजना (विद्यालयों में बच्चों को मध्याह्न भोजन देना), अन्नप्राशन योजना (6 माह से ऊपर के बच्चों के लिए), किशोरी शक्ति योजना, राष्ट्रीय आयरन प्लस पहल (WIFS), और पोषण अभियान (Poshan Abhiyaan)। “पोषण अभियान” 2018 में शुरू किया गया था जिसका उद्देश्य 2022 तक कुपोषण को 2% तक कम करना है। इसमें तकनीकी माध्यमों, मोबाइल एप्स और निगरानी प्रणाली के जरिए बच्चों की वृद्धि और माताओं की सेहत पर नजर रखी जाती है। राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम का मूल उद्देश्य सभी नागरिकों को पोषण के प्रति जागरूक करना और उन्हें संतुलित आहार के प्रति प्रेरित कर पोषण की गुणवत्ता में सुधार करना है। यह कार्यक्रम सरकार, समुदाय और परिवार के संयुक्त प्रयासों से सफल होता है और देश की स्वास्थ्य स्थिति को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
दाई की भूमिका: पारंपरिक प्रसव सहायिका
दाई का कार्य ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में गर्भवती महिलाओं की प्रसव के समय सहायता करना होता है। वह गर्भवती महिला की प्रसव पूर्व देखभाल, सुरक्षित प्रसव कराना, प्रसव के बाद मां और नवजात शिशु की देखभाल करना, साफ-सफाई का ध्यान रखना, जच्चा-बच्चा की निगरानी करना, नवजात को स्तनपान के लिए प्रेरित करना, नाल काटने के लिए स्वच्छ उपकरणों का उपयोग करना, टीकाकरण के लिए परामर्श देना, प्रसव के समय होने वाली जटिलताओं को पहचान कर समय पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या अस्पताल रेफर करना, और गर्भवती महिलाओं को पोषण संबंधी सलाह देना जैसे कार्यों में सक्रिय रहती है। एक प्रशिक्षित दाई समुदाय में मातृ और शिशु मृत्यु दर को कम करने में अहम भूमिका निभाती है।
दाई ग्रामीण क्षेत्रों की एक पारंपरिक प्रसव सहायिका होती है जो गर्भवती महिलाओं की देखभाल करती है और प्रसव कराने में सहायता प्रदान करती है। वह गर्भवती महिला को गर्भावस्था के दौरान घरेलू देखभाल की जानकारी देती है और प्रसव के लक्षणों को पहचानती है। प्रसव के समय वह मां की सहायता करती है, साफ-सफाई रखती है, उबले हुए कपड़े और गर्म पानी का उपयोग करती है, तथा नाल को साफ व बाँधकर काटती है जिससे संक्रमण न हो। प्रसव के बाद दाई शिशु को साफ करती है, उसे माँ के स्तन से लगवाती है ताकि माँ का पहला दूध (कोलोस्ट्रम) शिशु को मिल सके जो अत्यंत पोषक होता है। वह माँ को आराम, उचित आहार और विश्राम की सलाह देती है। दाई यह भी देखती है कि प्रसव के बाद माँ को अधिक रक्तस्राव या अन्य कोई खतरा तो नहीं हो रहा है, और जटिलता की स्थिति में तुरंत अस्पताल जाने की सलाह देती है। वह नवजात शिशु का वजन देखकर कुपोषण या कमजोरी की पहचान करती है और परिवार को टीकाकरण केंद्र तक ले जाने को प्रेरित करती है। प्रशिक्षित दाई स्थानीय स्वास्थ्य कर्मियों (ANM या आशा) के साथ समन्वय में कार्य करती है और स्वास्थ्य योजनाओं की जानकारी भी देती है जैसे जननी सुरक्षा योजना, संस्थागत प्रसव आदि। दाई समुदाय की महिलाओं को मासिक धर्म, सफाई, पारिवारिक नियोजन और पोषण जैसे विषयों पर जागरूक करती है जिससे संपूर्ण मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य बेहतर हो सके।
राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (RBSK)
राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (RBSK) भारत सरकार द्वारा 2013 में शुरू किया गया एक सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य 0 से 18 वर्ष की आयु तक के बच्चों में बीमारियों की समय पर पहचान, उपचार और प्रबंधन करना है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत जन्म से लेकर किशोरावस्था तक के बच्चों की जांच की जाती है जिससे उन्हें समय पर उपचार मिल सके और उनका पूर्ण विकास हो सके।
इस कार्यक्रम के अंतर्गत 4Ds यानी:
- जन्मजात दोष (Defects at birth)
- बीमारियाँ (Diseases)
- कुपोषण (Deficiency conditions)
- विकास में बाधा (Developmental delays including disabilities)
को शामिल किया गया है। RBSK के अंतर्गत आंगनबाड़ी केंद्रों में 0–6 वर्ष के बच्चों, स्कूलों में 6–18 वर्ष के बच्चों तथा नवजातों की नियमित स्वास्थ्य जांच की जाती है। स्वास्थ्य टीम में एक महिला और एक पुरुष आयुष डॉक्टर, एक ANM और एक फार्मासिस्ट शामिल होते हैं जो बच्चों की स्क्रीनिंग और आवश्यक उपचार का कार्य करते हैं। यदि किसी बच्चे में कोई गंभीर समस्या पाई जाती है तो उसे उच्च संस्थान में रेफर किया जाता है और मुफ्त इलाज की व्यवस्था की जाती है। इस कार्यक्रम से बाल मृत्यु दर, कुपोषण और विकलांगता को कम करने में सहायता मिलती है और स्वस्थ भविष्य की नींव रखी जाती है।
स्वच्छ भारत मिशन: एक राष्ट्रव्यापी स्वच्छता अभियान
स्वच्छ भारत मिशन भारत सरकार द्वारा 2 अक्टूबर 2014 को महात्मा गांधी की जयंती पर शुरू किया गया एक राष्ट्रव्यापी अभियान है जिसका उद्देश्य देश को खुले में शौच से मुक्त (ODF) बनाना और स्वच्छता की आदतों को बढ़ावा देना है। इस अभियान की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी और इसका मुख्य लक्ष्य वर्ष 2019 तक पूरे भारत को स्वच्छ बनाना था।
स्वच्छ भारत मिशन को दो भागों में विभाजित किया गया है:
- स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण)
- स्वच्छ भारत मिशन (शहरी)
ग्रामीण क्षेत्रों में इसका उद्देश्य हर घर में शौचालय बनवाना, खुले में शौच को समाप्त करना, ठोस और तरल कचरे का प्रबंधन करना और ग्राम स्वराज के तहत लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक बनाना है। शहरी क्षेत्रों में सड़कों, गलियों, नालियों की सफाई, सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण, कचरा प्रबंधन, प्लास्टिक के उपयोग में कमी और स्वच्छता पर जन जागरूकता फैलाने पर ज़ोर दिया गया है। इस मिशन के तहत लाखों शौचालयों का निर्माण हुआ है और देश के अधिकांश गाँवों और शहरों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया है। स्वच्छ भारत मिशन ने नागरिकों में स्वच्छता के प्रति जागरूकता बढ़ाई है और स्वच्छता को एक जन आंदोलन के रूप में स्थापित किया है।
नवजात शिशु की देखभाल के महत्वपूर्ण पहलू
नवजात शिशु की देखभाल अत्यंत कोमलता और सावधानी से करनी चाहिए क्योंकि इस समय वह संक्रमण और बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील होता है। जन्म के तुरंत बाद शिशु की नाक और मुंह से बलगम साफ किया जाना चाहिए जिससे उसकी श्वास प्रणाली खुली रहे। शिशु को जन्म के पहले घंटे के भीतर माँ के स्तन से दूध पिलाना चाहिए जिससे उसे कोलोस्ट्रम (पहला गाढ़ा पीला दूध) मिले जो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। शिशु को साफ, सूखे और गर्म कपड़ों में लपेटकर रखा जाना चाहिए और उसका शरीर का तापमान बनाए रखने के लिए त्वचा से त्वचा का संपर्क (कंगारू मदर केयर) आवश्यक है।
नवजात को साफ-सुथरे, गर्म और हवादार कमरे में रखना चाहिए और उसे धुएं, ठंडी हवा या भीड़भाड़ से बचाना चाहिए। हर बार दूध पिलाने के बाद शिशु को डकार दिलवाना चाहिए ताकि गैस की समस्या न हो। नवजात को नहलाने के बजाय पहले कुछ दिनों तक साफ गीले कपड़े से पोंछना बेहतर होता है। नाल को साफ, सूखा और खुले में रखना चाहिए तथा उस पर कोई तेल, घी या लेप नहीं लगाना चाहिए। शिशु के वजन, शरीर के रंग और गतिविधियों पर नियमित निगरानी रखनी चाहिए ताकि किसी भी समस्या का पता समय पर चल सके। टीकाकरण की शुरुआत जन्म के साथ ही करनी चाहिए जैसे बीसीजी, हेपाटाइटिस बी और पोलियो की खुराक देना। शिशु को पर्याप्त नींद देना आवश्यक है और उसे हमेशा पीठ के बल सुलाना चाहिए जिससे सांस लेने में कोई समस्या न हो। माँ को संतुलित आहार लेना चाहिए जिससे दूध में पर्याप्त पोषण रहे। यदि शिशु में अत्यधिक रोना, सुस्ती, दूध न पीना, सांस लेने में तकलीफ या बुखार जैसे लक्षण दिखें तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए।
गर्भनिरोधक विधियाँ और परिवार नियोजन
गर्भनिरोधक विधियाँ वे उपाय हैं जिनके द्वारा अनचाहे गर्भधारण को रोका जा सकता है और परिवार नियोजन किया जा सकता है। गर्भनिरोधक विधियाँ मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं: स्थायी और अस्थायी।
- स्थायी विधियाँ: इनमें वे विधियाँ आती हैं जो हमेशा के लिए गर्भधारण रोकने के लिए अपनाई जाती हैं जैसे पुरुष नसबंदी (वसेक्टॉमी) और महिला नसबंदी (ट्यूबल लिगेशन)।
- अस्थायी विधियाँ: ये वे विधियाँ होती हैं जिनका उपयोग एक निश्चित समय तक गर्भनिरोध के लिए किया जाता है और आवश्यकता पड़ने पर रोका जा सकता है। अस्थायी विधियों में कंडोम, गर्भनिरोधक गोलियाँ, कॉपर-टी, इंजेक्शन, आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियाँ, नारी रोधक (डायफ्राम), और गर्भनिरोधक इम्प्लांट शामिल हैं।
कंडोम पुरुषों और महिलाओं के लिए उपलब्ध होते हैं और यह न केवल गर्भ रोकते हैं बल्कि यौन संचारित रोगों से भी सुरक्षा प्रदान करते हैं। मौखिक गर्भनिरोधक गोलियाँ हार्मोनल होती हैं जो महिलाओं में अंडोत्सर्जन रोकती हैं। कॉपर-टी एक यांत्रिक उपकरण है जिसे गर्भाशय में डाला जाता है और यह कई वर्षों तक गर्भधारण से रोकता है। इंजेक्शन गर्भनिरोधक एक निर्धारित समय पर लगाया जाता है और यह 3 महीने तक असर करता है। आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियाँ असुरक्षित यौन संबंध के 72 घंटे के भीतर ली जाती हैं जिससे गर्भधारण न हो। गर्भनिरोधक विधियों का चयन व्यक्ति की स्वास्थ्य स्थिति, उम्र, बच्चे की संख्या और इच्छा के अनुसार किया जाना चाहिए। सरकार द्वारा मुफ्त गर्भनिरोधक साधन और परामर्श स्वास्थ्य केंद्रों पर उपलब्ध कराए जाते हैं जिससे जनसंख्या नियंत्रण और मातृ स्वास्थ्य में सुधार हो सके।
बच्चों की वृद्धि निगरानी का महत्व
वृद्धि निगरानी बच्चों के शारीरिक विकास पर नियमित रूप से नजर रखने की एक प्रक्रिया है जिससे यह पता चलता है कि बच्चा उम्र के अनुसार ठीक से बढ़ रहा है या नहीं। इस प्रक्रिया में बच्चे की ऊँचाई, वजन, सिर की परिधि, और शरीर की वृद्धि दर को समय-समय पर मापा जाता है। यह विशेष रूप से शिशु और 5 वर्ष तक के बच्चों के लिए अत्यंत आवश्यक होती है क्योंकि इस समय शारीरिक और मानसिक विकास बहुत तेज़ी से होता है।
वृद्धि निगरानी के लिए ग्रोथ चार्ट या वृद्धि रेखा चार्ट का उपयोग किया जाता है जिसमें बच्चे के उम्र के अनुसार वजन और ऊंचाई के आंकड़े दर्ज किए जाते हैं। यदि बच्चा लगातार चार्ट पर नीचे की रेखा में आता है या वजन नहीं बढ़ता है तो यह कुपोषण या बीमारी का संकेत हो सकता है। वृद्धि निगरानी से माता-पिता और स्वास्थ्यकर्मी बच्चों की पोषण स्थिति को समझ सकते हैं और समय पर हस्तक्षेप कर सकते हैं। इससे बच्चों में कुपोषण, विकास में देरी और बीमारियों की पहचान जल्दी हो जाती है और उचित उपचार किया जा सकता है। यह कार्य सामान्यतः आंगनबाड़ी केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों या अस्पतालों में किया जाता है। स्वास्थ्य कार्यकर्ता बच्चों की निगरानी के साथ-साथ माता को पोषण, स्तनपान, साफ-सफाई और टीकाकरण की सलाह भी देते हैं। नियमित वृद्धि निगरानी से बाल मृत्यु दर को कम किया जा सकता है और बच्चों का संपूर्ण स्वास्थ्य सुनिश्चित किया जा सकता है।
मातृ मृत्यु दर: कारण और रोकथाम
मातृ मृत्यु दर उस संख्या को कहते हैं जिसमें एक निश्चित समयावधि में प्रति एक लाख जीवित जन्मों पर गर्भावस्था या प्रसव के दौरान या प्रसव के 42 दिनों के भीतर महिलाओं की मृत्यु होती है। यह मृत्यु गर्भावस्था से संबंधित जटिलताओं या प्रसव से जुड़ी समस्याओं के कारण होती है न कि किसी दुर्घटना या बाहरी कारण से। भारत जैसे विकासशील देशों में मातृ मृत्यु दर एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है।
इसके प्रमुख कारणों में अत्यधिक रक्तस्राव, उच्च रक्तचाप, संक्रमण, असुरक्षित प्रसव, एनीमिया, और समय पर चिकित्सा सुविधा न मिलना शामिल है। मातृ मृत्यु दर को कम करने के लिए सुरक्षित प्रसव, संस्थागत डिलीवरी, प्रसव पूर्व और प्रसवोत्तर जांच, आयरन और फोलिक एसिड की खुराक, स्वच्छता, प्रशिक्षित दाई की सहायता, और जननी सुरक्षा योजना जैसी सरकारी योजनाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। मातृ स्वास्थ्य सेवाओं तक महिलाओं की पहुंच, पोषण स्तर, शिक्षा और जागरूकता भी मातृ मृत्यु दर को प्रभावित करते हैं। सरकार द्वारा एमसीएच (मदर एंड चाइल्ड हेल्थ) कार्यक्रम, एनएचएम (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन), पीएम जन आरोग्य योजना जैसे कदम मातृ मृत्यु दर को घटाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। समय पर देखभाल, जागरूकता और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं माताओं की जान बचाने के लिए आवश्यक हैं।
दूध की स्वच्छता और गुणवत्ता का महत्व
दूध की स्वच्छता का अर्थ है दूध के उत्पादन, संग्रहण, प्रसंस्करण, परिवहन और उपभोग की प्रत्येक अवस्था में स्वच्छता बनाए रखना ताकि उसमें किसी प्रकार का संक्रमण, मिलावट या खराबी न हो। दूध एक संपूर्ण आहार है लेकिन यह बहुत जल्दी खराब हो सकता है इसलिए इसकी सफाई और गुणवत्ता बनाए रखना आवश्यक होता है।
दूध निकालते समय पशु की थनों की सफाई, दूध निकालने वाले बर्तनों की स्वच्छता और व्यक्ति की साफ-सफाई बहुत जरूरी होती है। दूध को साफ, उबले हुए और ढक्कन लगे बर्तनों में संग्रहित करना चाहिए। दूध को 30 मिनट तक उबालना या पाश्चराइज करना चाहिए जिससे उसमें उपस्थित हानिकारक बैक्टीरिया नष्ट हो सकें। दूध को ठंडी जगह या फ्रिज में रखना चाहिए ताकि वह लंबे समय तक खराब न हो। दूध के बर्तनों को हर उपयोग के बाद गर्म पानी और साबुन से धोना आवश्यक होता है। दूध में मिलावट जैसे पानी, स्टार्च, डिटर्जेंट या सिंथेटिक पदार्थ डालना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है और यह कानूनी अपराध भी है। बाजार से पैक्ड दूध लेते समय उसकी सील, उत्पादन तिथि और एफएसएसएआई (FSSAI) मान्यता की जांच करनी चाहिए। दूध का सेवन करते समय उसकी गंध, रंग और स्वाद पर ध्यान देना चाहिए। दूध की स्वच्छता बनाए रखने से बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बीमार लोगों को पोषण मिलता है और संक्रमण से बचाव होता है।
जन्म और मृत्यु पंजीकरण की कानूनी प्रक्रिया
जन्म और मृत्यु का पंजीकरण एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत किसी व्यक्ति के जन्म और मृत्यु की जानकारी सरकार के रिकॉर्ड में दर्ज की जाती है। भारत में जन्म और मृत्यु का पंजीकरण अनिवार्य है और इसे जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण अधिनियम 1969 के अंतर्गत संचालित किया जाता है।
जन्म पंजीकरण से व्यक्ति की पहचान, नागरिकता, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और सामाजिक योजनाओं का लाभ सुनिश्चित किया जाता है जबकि मृत्यु पंजीकरण से मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किया जाता है जो संपत्ति हस्तांतरण, बीमा क्लेम और कानूनी प्रक्रिया के लिए आवश्यक होता है। जन्म की सूचना बच्चे के माता-पिता, परिजन, अस्पताल या दाई द्वारा 21 दिनों के भीतर संबंधित नगर निगम, पंचायत या पंजीकरण कार्यालय में दी जाती है। मृत्यु की सूचना भी परिवार के सदस्य, अस्पताल या श्मशान के प्रभारी द्वारा 21 दिनों के भीतर पंजीकृत की जाती है। यदि सूचना विलंब से दी जाती है तो प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए विशेष अनुमति, शपथ पत्र और शुल्क की आवश्यकता होती है। ऑनलाइन पंजीकरण की सुविधा भी उपलब्ध है जिससे नागरिक घर बैठे आवेदन कर सकते हैं। सही समय पर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण न केवल व्यक्ति की पहचान और अधिकारों को सुनिश्चित करता है बल्कि जनसंख्या आंकड़ों और योजनाओं के निर्माण में भी मदद करता है। सरकार द्वारा जनजागरूकता और निःशुल्क पंजीकरण के माध्यम से इसे सरल और सुगम बनाया गया है।