आधुनिक भारतीय संगीत की नींव: भातखंडे, पालुस्कर, सितार और गिटार

आधुनिक हिन्दुस्तानी संगीत के निर्माता

दोनों व्यक्तित्वों (पंडित वी.एन. भातखंडे और पंडित वी.डी. पालुस्कर) ने आधुनिक हिन्दुस्तानी संगीत को “शास्त्र” और “संस्था” देने में निर्णायक भूमिका निभाई। संक्षेप में, भातखंडे ने सिद्धांत–संरचना और लिखित पद्धति को व्यवस्थित किया, जबकि पालुस्कर ने शिक्षा–संस्थाएँ और सार्वजनिक मंच देकर संगीत को जन–जन तक पहुँचाया।

पंडित वी.एन. भातखंडे का योगदान

  • भातखंडे ने विभिन्न घरानों से सैकड़ों बंदिशें इकट्ठी कर उनका गहन अध्ययन किया और उनके आधार पर आधुनिक **राग–सिद्धांत** और **ठाठ–प्रणाली (थाट सिस्टम)** को स्पष्ट रूप से संगठित किया; इसी से आज रागों की शास्त्रीय वर्गीकरण–प्रणाली चलन में है।
  • उन्होंने **भातखंडे स्वर–लिपि (Notation System)** विकसित की, जिसमें सरल चिन्हों से राग, ताल, लय आदि लिखे जा सकते हैं, और “क्रमिक पुस्तकमाला (Kramik Pustak Malika)” जैसी पुस्तकों के माध्यम से सैकड़ों राग–रचनाएँ व्यवस्थित रूप से प्रकाशित कीं; इससे संगीत पहली बार एक आधुनिक, अकादमिक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा।
  • भातखंडे ने विभिन्न रियासतों और संस्थानों में संगीत विद्यालयों की स्थापना, पाठ्यक्रम तैयार करने और परीक्षाओं की व्यवस्था पर काम किया, जिससे परम्परागत गुरु–शिष्य पद्धति के साथ‑साथ **संगीत–शिक्षा का आधुनिक, सामूहिक ढाँचा** भी विकसित हुआ।

पंडित वी.डी. पालुस्कर (विष्णु दिगंबर पालुस्कर) का योगदान

  • पालुस्कर ने 1901 में लाहौर (बाद में मुंबई आदि में) **गंधर्व महाविद्यालय** की स्थापना की, जो भारत का पहला बड़ा सार्वजनिक संगीत–संस्थान था; इससे संगीत केवल खानदानी/दरबारी कलाकारों का व्यवसाय न रहकर सामान्य विद्यार्थियों के लिए भी सम्मानजनक शिक्षा–विषय बन सका।
  • उन्होंने सरल और व्यवस्थित **विष्णु दिगंबर स्वर–लिपि** तथा “संगीत बाल प्रकाश” जैसी पुस्तकों द्वारा राग, भजन और रचनाओं को लिखित रूप में व्यापक रूप से फैलाया, जिससे विद्यार्थियों के लिए स्वाध्याय और संगठित रियाज़ आसान हुआ।
  • पालुस्कर ने भजन, कीर्तन और भक्तिमय संगीत को सौंदर्यपूर्ण राग–आधार देकर पुनर्जीवित किया, सार्वजनिक सभाओं में “वंदे मातरम्”, “रघुपति राघव राजा राम” जैसे गीतों की प्रस्तुति से **संगीत को राष्ट्रभक्ति और सामाजिक जागरण** से जोड़ा, और मंच‑शैली, अनुशासन, वेश–भूषा आदि में भी सुधार कर शास्त्रीय संगीत को सांस्कृतिक–राष्ट्रीय गरिमा दिलाई।

सितार और गिटार: तंतुवाद्य विश्लेषण

सितार और गिटार दोनों तंतुवाद्य हैं, लेकिन एक भारतीय शास्त्रीय परम्परा का प्रमुख वाद्य है और दूसरा आधुनिक वैश्विक संगीत का सबसे लोकप्रिय वाद्य। दोनों का अध्ययन संरचना, इतिहास और वादन शैली के आधार पर किया जाता है।

सितार: इतिहास और विकास

  • सितार उत्तर भारतीय (हिन्दुस्तानी) शास्त्रीय संगीत का प्रमुख तंतुवाद्य है, जो ल्यूट परिवार से सम्बन्ध रखता है और इसका आधुनिक रूप लगभग 18वीं शताब्दी में विकसित हुआ माना जाता है।
  • पंडित रवि शंकर, उस्ताद विलायत ख़ाँ आदि कलाकारों ने 20वीं सदी में सितार को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहुँचाया, जिससे यह विश्वभर में भारतीय संगीत का प्रतीक बन गया।

सितार: संरचना

  • सितार का मुख्य गूँजने वाला भाग **तूँबा (Tumba)** होता है, जो सूखे कद्दू से बना गोल पेट जैसा हिस्सा है; इसके साथ जुड़ी हुई लंबी लकड़ी की **डाँड (Dand)** पर चलायमान धातु के **पर्दे (Frets)** और अनेक **तार** लगे होते हैं।
  • सामान्यतः सितार में 6–7 मुख्य बजाने वाले तार (मेलोडी, जंकार/चिकारियाँ) और लगभग 11–13 **तरब (Sympathetic)** तार होते हैं, जो नीचे छोटे घोरज (Bridge) पर से गुजरते हैं और राग के स्वरों पर सहानुभूतिपूर्वक झनकते हैं।
  • तारों को कसने के लिए ऊपर–नीचे लकड़ी की **कुंतियाँ (Pegs)** होती हैं; बड़ा घोरज मुख्य और चिकारियों के लिए, छोटा घोरज तरब तारों के लिए, और पूरी डंडी पर 17–20 के आसपास पर्दे बाँधे रहते हैं जिन्हें राग के अनुसार खिसकाया जा सकता है।

सितार: वादन पद्धति

  • सितार ज़मीन पर बैठकर बजाया जाता है; वादक दाएँ पैर को बाएँ पर रखकर बैठता है, तूँबा बाएँ पैर पर टिकाकर और डंडी को लगभग 45 डिग्री पर ऊपर की ओर रखकर वादन करता है।
  • दाहिने हाथ की तर्जनी उँगली में लोहे का **मिज़राब** पहनकर तारों को नीचे की ओर “दा” और ऊपर की ओर “रा” जैसे स्ट्रोक से झंकृत किया जाता है, जबकि बायाँ हाथ तार को पर्दों पर दबाकर और बाजू की ओर खींचकर **मींड, गमक, तान, झाला** आदि तकनीक से राग की अभिव्यक्ति करता है।
  • सितार आम तौर पर किसी राग के स्वर–क्रम के अनुसार ट्यून किया जाता है; मुख्य “बाज तार” को सा पर, बाकी तारों को प, सा, म आदि पर रखा जाता है, ताकि राग का पूरा वातावरण बन सके।

गिटार: इतिहास और विकास

  • गिटार आधुनिक पश्चिमी तंतुवाद्य है, जो 16वीं सदी के लगभग स्पेन में विकसित हुआ और बाद में बारोक गिटार, क्लासिकल गिटार, फिर फ्लैट–टॉप अकूस्टिक और इलेक्ट्रिक गिटार के रूप में विकसित होता गया।
  • इसका पूर्वज यूरोपीय **ल्यूट**, स्पेन की **विहुएला** आदि माने जाते हैं; 19वीं सदी में स्पेनिश लुथियर एंतोनियो तोरेस ने क्लासिकल गिटार का मानक आकार दिया और 19वीं–20वीं सदी में C.F. Martin ने **X‑bracing** से स्टील स्ट्रिंग वाले फ्लैट‑टॉप अकूस्टिक गिटार को लोकप्रिय बनाया।
  • 20वीं सदी में इलेक्ट्रिक गिटार (Fender, Gibson आदि) के आगमन से जैज़, रॉक, पॉप, ब्लूज़ आदि लगभग सभी आधुनिक शैलियों में गिटार मुख्य वाद्य बन गया।

गिटार: संरचना

  • गिटार का मुख्य भाग लकड़ी का खोखला **बॉडी (Body)** है, जिसके ऊपर पतली **साउंडबोर्ड (Soundboard)** और बीच में गोल या “f‑hole” जैसी **साउंड होल (Sound Hole)** होती है; इसके साथ जुड़ा सीधा **नेक (Neck)** और उसके सिरे पर **हेडस्टॉक (Headstock)** होता है, जहाँ मशीन–हेड या ट्यूनिंग पेग लगे होते हैं।
  • नेक पर ऊपर से नीचे तक **फ्रेटबोर्ड (Fretboard)** और उस पर समान दूरी पर लगे धातु के **फ्रेट्स (Frets)** होते हैं; तार ऊपरी **नट (Nut)** से होकर ब्रिज तक जाते हैं और बॉडी पर लगे ब्रिज से जुड़कर वाइब्रेशन्स (Vibrations) को साउंडबोर्ड तक पहुँचाते हैं।
  • सामान्य आधुनिक गिटार में 6 तार (कभी 7 या 12) होते हैं; क्लासिकल गिटार में नायलॉन/गट–स्ट्रिंग, जबकि स्टील–स्ट्रिंग अकूस्टिक और इलेक्ट्रिक गिटार में स्टील–स्ट्रिंग लगाई जाती हैं, जिनसे ध्वनि तेज़ और चमकीली मिलती है।

गिटार: प्रकार और वादन शैली

  • मुख्य प्रकार: **क्लासिकल गिटार** (गट/नायलॉन स्ट्रिंग, उँगलियों से प्लकिंग), **अकूस्टिक फ्लैट‑टॉप** (स्टील स्ट्रिंग, स्ट्रम और पिकिंग), **आर्चटॉप** (जैज़ में प्रचलित), और **इलेक्ट्रिक गिटार**, जिसे पिकअप और ऐम्पलीफायर से जोड़ा जाता है।
  • गिटार को आमतौर पर बैठकर या खड़े होकर स्ट्रैप की सहायता से बजाया जाता है; दाहिना हाथ **पिक (Pick)** या उँगलियों से स्ट्रम/पिक करता है, और बायाँ हाथ फ्रेट्स पर तार दबाकर **कॉर्ड्स (Chords), स्केल्स (Scales), बेंड्स (Bends), स्लाइड्स (Slides), हैमर‑ऑन (Hammer-on), पुल‑ऑफ (Pull-off)** जैसी तकनीक से धुन और संगत दोनों तैयार करता है।
  • लोक, कंट्री, पॉप, रॉक, जैज़, ब्लूज़, फ्लेमेंको आदि लगभग हर शैली में गिटार की अलग–अलग तकनीकें (फिंगरस्टाइल, पावर कॉर्ड्स, सोलो लीड, रिदम स्ट्रमिंग आदि) विकसित हो चुकी हैं, जिसके कारण यह आज दुनिया का सबसे बहु–उपयोगी तंतुवाद्य माना जाता है।